कैप्टन मनोज पांडे जी की जयंती पर सभी ने अर्पित की विनम्र श्रद्धांजलि
आज सीतापुर की शान युवा दिलों की जान परमवीर चक्र विजेता कैप्टन मनोज पांडे जी की जयंती पर सीतापुर के कैप्टन मनोज पांडे चौराहे पर हम सभी ने विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की जिसमें विश्व हिंदू परिषद के जिला अध्यक्ष विपुल सिंह जी, अखिल भारतीय कायस्थ जाग्रती मंच के राष्ट्रीय महामंत्री अरविंद श्रीवास्तव , भाजपा नगर उपाध्यक्ष कामेश शुक्ला , मण्डल महामंत्री नीरज अवस्थी, रोहित श्रीवास्तव , भाजपा नगर उपाध्यक्ष देवांश सिंह, कन्हैया हिन्दू, पंकज मनोज, संजीव , अंकुर , वंदन पांडेय , संदीप शुक्ला इत्यादि लोग उपस्थित रहे उत्तर प्रदेश में 88000 ऋषि मुनियों की तपोस्थली सीतापुर के एक छोटे से गांव में अमर शहीद कैप्टन मनोज पांडेय का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले के रुधा गाँव में हुआ था। मनोज नेपाली क्षेत्री परिवार में पिता गोपीचन्द्र पांडेय तथा माँ मोहिनी के पुत्र के रूप में पैदा हुए थे। मनोज की शिक्षा सैनिक स्कूल लखनऊ में हुई और वहीं से उनमें अनुशासन भाव तथा देश प्रेम की भावना संचारित हुई जो उन्हें सम्मान के उत्कर्ष तक ले गई। इन्हें बचपन से ही वीरता तथा सद्चरित्र की कहानियाँ उनकी माँ सुनाया करती थीं और मनोज का हौसला बढ़ाती थीं कि वह हमेशा जीवन के किसी भी मोड़ पर चुनौतियों से घबराये नहीं और हमेशा सम्मान तथा यश की परवाह करे। इंटरमेडियेट की पढ़ाई पूरी करने के बाद मनोज ने प्रतियोगिता में सफल होने के पश्चात पुणे के पास खड़कवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में दाखिला लिया। प्रशिक्षण पूरा करने के पश्चात वे 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली वाहनी के अधिकारी बने।मनोज की माँ का आशीर्वाद और मनोज का सपना सच हुआ और वह बतौर एक कमीशंड ऑफिसर ग्यारहवां गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में पहुँच गए। उनकी तैनाती कश्मीर घाटी में हुई। ठीक अगले ही दिन उन्होंने अपने एक सीनियर सेकेंड लेफ्टिनेंट पी. एन. दत्ता के साथ एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भरा काम पूरा किया। यही पी.एन दत्ता एक आतंकवाडी गुट से मुठभेड़ में शहीद हो गए, और उन्हें अशोक चक्र प्राप्त हुआ जो भारत का युद्ध के अतिरिक्त बहादुरी भरे कारनामे के लिए दिया जाने वाला सबसे बड़ा इनाम है। एक बार मनोज को एक टुकड़ी लेकर गश्त के लिए भेजा गया। उनके लौटने में बहुत देर हो गई। इससे सबको बहुत चिंता हुई। जब वह अपने कार्यक्रम से दो दिन देर कर के वापस आए तो उनके कमांडिंग ऑफिसर ने उनसे इस देर का कारण पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया, 'हमें अपनी गश्त में उग्रवादी मिले ही नहीं तो हम आगे चलते ही चले गए, जब तक हमने उनका सामना नहीं कर लिया।' इसी तरह, जब इनकी बटालियन को सियाचिन में तैनात होना था, तब मनोज युवा अफसरों की एक ट्रेनिंग पर थे। वह इस बात से परेशान हो गये कि इस ट्रेनिंग की वजह से वह सियाचिन नहीं जा पाएँगे। जब इस टुकड़ी को कठिनाई भरे काम को अंजाम देने का मौका आया, तो मनोज ने अपने कमांडिंग अफसर को लिखा कि अगर उनकी टुकड़ी उत्तरी ग्लेशियर की ओर जा रही हो तो उन्हें 'बाना चौकी' दी जाए और अगर कूच सेंट्रल ग्लोशियर की ओर हो, तो उन्हें 'पहलवान चौकी' मिले। यह दोनों चौकियाँ दरअसल बहुत कठिन प्रकार की हिम्मत की माँग करतीं हैं और यही मनोज चाहते थे। आखिरकार मनोज कुमार पांडेय को लम्बे समय तक 19700 फीट ऊँची 'पहलवान चौकी' पर डटे रहने का मौका मिला,मनोज पाण्डेय की टुकड़ी सियाचिन की चौकी से होकर वापस आई थी और तभी 3 मई 1999, को कारगिल युद्ध का संकेत मिल गया. और इस वीर योद्धा ने आराम की बात भूल फिर से तैयार हो गया दुशमनो को धुल चटाने के लिए.और वो पहले अफसर थे जिन्होंने खुद आगे बढ़ कर कारगिलके युद्ध में शामिल होने की बात कही थी. अगर लेफ्टीनेंट चाहते तो उन्हें छुट्टी भी मिल सकती थी क्युकी वो अभी अभी सियाचिन की चौकी से होकर आये थे, पर देश प्रेम का जज्बा उनके खून में भरा था और उन्होंने इस युद्ध के लिए आगे आये और अपने जीवन के सबसे निर्णायक युद्ध के लिए 2 - 3 जुलाई 1999 को निकल पड़े. और इन्हें पहली ज़िम्मेदारी मिली खालूबार को फ़तह करने की अपनी 1/11 गोरखा राइफल्स की 'बी कम्पनी के साथ. इस युद्ध के दौरान उनका प्रमोशन दिया गया था उन्हें लेफ्टीनेंट से कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय बना दिया गया था.और इसी के साथ शुरू हुयी एक भीषण जंग जिसमे इस वीर ने कारगिल सेक्टर में दुश्मन के द्वारा दागे जा रहे बम, बारूद और तोपों के गोले से बचते हुए चुन चुन कर पाकिस्तानी घुसपैठियों का सफाया करते जा रहे थे. गोलियों की बौछार से बेख़ौफ़ निरंतर अपनी टुकड़ी के साथ के साथ आगे की ओर बढ़ते जा रहे थे, और दूसरी तरफ दुश्मन ऊँची चोटी पर घात लगाये बैठा हैं की कब भारतीय सैनिक दिखे और उन्हें मार गिराए. लेकिन यह वीर इन पाकिस्तानी घुसपैठियों से डरे बिना आगे बढ़ते हुए कैप्टन मनोज एक-एक कर दुश्मनों के सारे बंकरों को धवस्त करते जा रहे थे.पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध के कठिन मोर्चों में एक मोर्चा खालूबार का था जिसको फ़तह करने के लिए कमर कस कर उन्होने अपनी 1/11 गोरखा राइफल्स की अगुवाई करते हुए दुश्मन से जूझ गए और जीत कर ही माने। हालांकि, इन कोशिशों में उन्हें अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। वे 24 वर्ष की उम्र जी देश को अपनी वीरता और हिम्मत का उदाहरण दे गए।कारगिल युद्ध में असाधारण बहादुरी के लिए उन्हें सेना का सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से अलंकृत किया गया। सारा देश उनकी बहादुरी को प्रणाम करता है।
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